कविता सुगम्य होती सहजीच मांडण्याला
जणु पालवी फुटावी बहरून पिंपळाला
मज भेटली कितीदा हस-या मुलाप्रमाणे
गलक्यास पाखरांच्या गजला म्हणावयाला
घरट्यात ह्याच माझ्या वसण्या कधी न आली
झटक्यात पूर्ण झाली बिलगून कागदाला
परि आज चित्र सारे बदलून भव्य झाले
गिळलेय भव्यतेने पुरते जुन्या जगाला
कविता अशीच आता असते मला अलिप्ता
तमसात ह्या विशादी ठिणग्या उजाळण्याला
सरकार-धर्म ह्यांची असली युतीच दैना
ममता पुरी पडेना नवजात अर्भकाला
शहरास पारखूनी कविता थकून येता
विटते, नकार देते रचनेत बंधण्याला
निघते, निघून जाते फुटपाथ गाठते ती
रडतोय वृद्ध जो त्यां नयनांत वाळण्याला
-
मूळ कविता: "नज्म बहौत आसान थी पहले..."
कवी: निदा फाजली
भावानुवाद: ....रसप....
५ एप्रिल २०११
मूळ कविता:
नज्म बहुत आसान थी पहले
घर के आगे
पीपल की शाखों से उछल के
आते-जाते बच्चों के बस्तों से निकल के
रंग बरंगी चिडयों के चेहकार में ढल के
नज्म मेरे घर जब आती थी
मेरे कलम से जल्दी-जल्दी खुद को पूरा लिख जाती थी,
अब सब मंजर बदल चुके हैं
छोटे-छोटे चौराहों से चौडे रस्ते निकल चुके हैं
बडे-बडे बाजार पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं
नज्म से मुझ तक अब मीलों लंबी दूरी है
इन मीलों लंबी दूरी में कहीं अचानक बम फटते हैं
कोख में माओं के सोते बच्चे डरते हैं
मजहब और सियासत मिलकर नये-नये नारे रटते हैं
बहुत से शहरों-बहुत से मुल्कों से अब होकर
नज्म मेरे घर जब आती है.
इतनी ज्यादा थक जाती है
मेरी लिखने की टेबिल पर खाली कागज को खाली ही छोड के
रुख्सत हो जाती है और किसी फुटपाथ पे जाकर
शहर के सब से बूढे शहरी की पलकों पर
आँसू बन कर
सो जाती है।
..निदा फ़ाजली
जणु पालवी फुटावी बहरून पिंपळाला
मज भेटली कितीदा हस-या मुलाप्रमाणे
गलक्यास पाखरांच्या गजला म्हणावयाला
घरट्यात ह्याच माझ्या वसण्या कधी न आली
झटक्यात पूर्ण झाली बिलगून कागदाला
परि आज चित्र सारे बदलून भव्य झाले
गिळलेय भव्यतेने पुरते जुन्या जगाला
कविता अशीच आता असते मला अलिप्ता
तमसात ह्या विशादी ठिणग्या उजाळण्याला
सरकार-धर्म ह्यांची असली युतीच दैना
ममता पुरी पडेना नवजात अर्भकाला
शहरास पारखूनी कविता थकून येता
विटते, नकार देते रचनेत बंधण्याला
निघते, निघून जाते फुटपाथ गाठते ती
रडतोय वृद्ध जो त्यां नयनांत वाळण्याला
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मूळ कविता: "नज्म बहौत आसान थी पहले..."
कवी: निदा फाजली
भावानुवाद: ....रसप....
५ एप्रिल २०११
मूळ कविता:
नज्म बहुत आसान थी पहले
घर के आगे
पीपल की शाखों से उछल के
आते-जाते बच्चों के बस्तों से निकल के
रंग बरंगी चिडयों के चेहकार में ढल के
नज्म मेरे घर जब आती थी
मेरे कलम से जल्दी-जल्दी खुद को पूरा लिख जाती थी,
अब सब मंजर बदल चुके हैं
छोटे-छोटे चौराहों से चौडे रस्ते निकल चुके हैं
बडे-बडे बाजार पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं
नज्म से मुझ तक अब मीलों लंबी दूरी है
इन मीलों लंबी दूरी में कहीं अचानक बम फटते हैं
कोख में माओं के सोते बच्चे डरते हैं
मजहब और सियासत मिलकर नये-नये नारे रटते हैं
बहुत से शहरों-बहुत से मुल्कों से अब होकर
नज्म मेरे घर जब आती है.
इतनी ज्यादा थक जाती है
मेरी लिखने की टेबिल पर खाली कागज को खाली ही छोड के
रुख्सत हो जाती है और किसी फुटपाथ पे जाकर
शहर के सब से बूढे शहरी की पलकों पर
आँसू बन कर
सो जाती है।
..निदा फ़ाजली
Awesome lines...
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