आता इष्ट असे तुला विसरणे, ना शक्य होई परी
नाही स्वप्न कुणी खरीच असशी, वाटे मनाला तरी
माझे हाल कसे कुणा समजणे, झालोय वेडा-खुळा
जे नाही घडले तया विसरण्या माझ्या मना सावरी
अव्यक्ती पडले विचार अधुरी राहून गेली कथा
ऐशी ओढ मला कधीच नव्हती, कल्पीत ते मी स्मरी
सांगावे मजला कुणी मन खुळे आता कसे सावरू
नाही स्वप्न कुणी खरीच असशी, वाटे मनाला तरी
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मूळ कविता: भूल जाऊँ अब यही मुनासिब है
कवी: जावेद अख्तर
भावानुवाद: ....रसप....
२१ एप्रिल २०११
मूळ कविता:
भूल जाऊँ अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख़्त
भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त
वो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
- जावेद अख्तर
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